कर फ़तह
कर फ़तह
क्यों परवाह करूं मैं उन नासाज़ लोगों की।
हवाओं का रुख़ बदल दे,वो दम इन बादलों में नहीं ।
क्यों न मैं बन जाऊं इनकी चुस्कियों की गपशप मीठी।
इन लहरों को वो मोड़ दें,वो निश्चल सी नदिया मैं नहीं।
षड्यंत्र कैसा ही रच ले, कलयुग के ओ शकुनी।
तेरी बाजी से मैं हार जाऊं, द्वापर का युधिष्टिर मैं नहीं ।
आग का दरिया मैं वो, राख में बिखरी चिंगारी तो नहीं ।
असीम समुन्दर की लहर मैं वो, बाँध में ठहरा पानी तो नहीं ।
बारिश की घनघोर घटा हूँ वो, नीले आसमां का सफेद बादल मैं नहीं ।
जंगल का खूंखार शिकारी मैं वो, बचे हिस्से पे जीने वाला लकड़बग्घा मैं नहीं ।
