कहर
कहर
सुलगती आग से लिपटे धुएं सी
या ठंडे बर्फ़ की गलन सी
शोला बन के जलूं या हिम सी जम जाऊं
चाहे जैसे आजमा मुझे , हर अहसास से टकराऊं,
कर ले कैसे भी आजमाइश मेरी ताकत की
ना पूछ किसी से,ना ले इजाज़त किसी की
हर परख को पार करूं में , हर दौड़ जीत जाऊं मैं
सख्त जमीं तो क्या है, अंगार का दरिया पार कर जाऊं मैं,
अब लड़नी पड़े लड़ाई या पीना पड़े काला ज़हर
बिजली बन गिरूं उन पे ,जो उठाये मुझ पे गंदी नज़र,
मैं हूं वो हवा जो नरमी से धुन में बहती जाऊं
वो चाहो बदलना रूख मेरा.....
में " कहर" बन जाऊं।
