खींची लकीरें
खींची लकीरें
लड़ाई कभी न राम, रहीम, तुलसी की है,
सारी लड़ाई उसकी तो कुर्सी की है।
फांसी की सज़ा पाए वो दरिंदे जी रहे हैं,
सारा दांव-पेंच तो कानून के मर्सी की है।
दफ्तरों के चक्कर लगाने वाले आज अकड़ने लगे,
साहब सारा दम तो मिले इस वर्दी की है।
गलती करने वाले कभी शर्मिंदा होतें थे,
ये हौसला उमड़ी भीड़ की हमदर्दी की है।
बांटने के लिए कभी सरहदें होती थी,
सीने में खिंची ये लकीरें खुदगर्ज़ी की है।
