STORYMIRROR

Saddam Husen

Classics Thriller

4  

Saddam Husen

Classics Thriller

खींची लकीरें

खींची लकीरें

1 min
199

लड़ाई कभी न राम, रहीम, तुलसी की है,

सारी लड़ाई उसकी तो कुर्सी की है।


फांसी की सज़ा पाए वो दरिंदे जी रहे हैं,

सारा दांव-पेंच तो कानून के मर्सी की है।


दफ्तरों के चक्कर लगाने वाले आज अकड़ने लगे,

साहब सारा दम तो मिले इस वर्दी की है।


गलती करने वाले कभी शर्मिंदा होतें थे,

ये हौसला उमड़ी भीड़ की हमदर्दी की है।


बांटने के लिए कभी सरहदें होती थी,

सीने में खिंची ये लकीरें खुदगर्ज़ी की है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics