खास बुलावा
खास बुलावा
🌹 खास बुलावा 🌹
❤️ एक श्रृंगारिक काव्य ❤️
✍️ श्री हरि
🗓️ 10.11.2025
वो कोई साधारण दिन नहीं था,
कैंपस की हवा में कुछ अलग गंध थी —
कॉपी के पन्नों में नहीं,
उसकी मुस्कान में लिखा था पाठ्यक्रम।
कॉरिडोर में जब वो गुज़री,
उसकी चूड़ियों ने कुछ कहा —
धीरे से, जैसे हवा भी सुनने झुक गई हो।
मेरे भीतर कोई दरवाज़ा खुला —
नाम नहीं लिया किसी ने,
पर बुलावा आ गया।
वो बोली नहीं,
पर आँखों के कोनों में
एक “खास बुलावा” झिलमिला गया —
जैसे नीले आसमान पर
पहला तारा मुस्कुराया हो।
क्लास में जब उसने पेंसिल मांगी,
मैंने पूरा दिल दे दिया।
और उस दिन से हर शाम,
कॉफ़ी का कप और इंतज़ार
समानार्थी हो गए।
वो कहती थी —
“जानते हो, जब तुम नहीं होते,
तो भी तुम होते हो।”
और मैं चुप रहता —
क्योंकि शब्द उस वक्त
बहुत छोटे पड़ जाते थे।
फिर एक दिन वो चली गई,
बिना कुछ कहे,
बस टेबल पर पड़ा रहा —
कॉफ़ी का आधा कप,
और हवा में बिखरा उसका हँसना।
अब भी, जब कैंपस की दीवारों से गुजरता हूँ,
हवा में वही खुशबू आती है,
वही “खास बुलावा” —
जो अब किसी जवाब की प्रतीक्षा नहीं करता,
बस स्मृति बनकर
धीरे-धीरे महकता रहता है। 🌸

