कहाँ गए वो दिन बचपन के
कहाँ गए वो दिन बचपन के
वह बचपन के दिन,
जिंदगी के सबसे हसीन दिन।
जब जिम्मेदारी का ना होता बोझ..
बस होती मौज ही मौज।
होते थें तब संयुक्त परिवार,
रहते सब मिलजुल साथ-साथ।
दादू, ताऊ,चाचा सब लड़ाते लाड़।
दादी,ताई,चाची बनाते ढ़ेरो पकवान।
आती थीं सबकी लाडली बुआ,रहने महीने भर,
रोज मनता था घर मे उत्सव, बनते पकवान घी मे तर।
सारे बच्चे मिलकर खूब धमाचौकड़ी मचाते थे,
पूरे मोहल्ले में अपना राज चलाते थे।
गर्मियों में शाम होते ही सबका छत पर होता डेरा,
यह पलंग तेरा...वह मेरा।
दो खाटे मिलाकर डबलबेड बनाते थे,
बड़ी सी मच्छरदानी उस पर टिकाते थे।
एक कोने में रखा होता था वह मटका,
जिसका मीठा पानी जाता बार-बार गटका।
तूने खत्म किया,अब भरने की तेरी बारी...
इसी बात पर होती तू-तू,मैं-मैं हमारी।
दादू को घेर कहानियाँ सुनते,
इतिहास के पन्ने जेहन मे छपते।
पड़े-पड़े बिस्तर पर खेलते अंताक्षरी...
यह मेरा गाना था, तुझे गाने की क्या पड़ी।
एक रूठता,दूजा मनाता...अरे सो जाओ,
सुबह उठना है कि नहीं...दादू के बिस्तर से शोर है आता।
अब ना पहले जैसे संयुक्त परिवार,ना दिलों में वह प्यार।
वो मुझसे बेहतर कैसे,यही प्रश्न मचाता बवाल।
जो बचपन हमने जिया, महरूम रह गए बच्चे हमारे...
इस मोबाइल ने आकर सब रिश्ते बिगाड़े।
जाने कहाँ गए वो दिन बचपन के...
याद आते हैं,बन सुंदर दिवास्वप्न से।
