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कभी कभी

कभी कभी

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कभी कभी तो चांद भी थककर सो जाता है

तुम्हारी राह तकते हुए

लेकिन मैंउस अंधेरे में भी 

उम्मीद का दिया जलाए

खुली आंखों से सपने देखती हूँ

तुम्हारे लौट आने के..

 

नहीं तुम कहीं गए तो नहीं

रोज नजर आते हो

मुझे अक्स की तरह

मगर अक्स की तरह ही तुम

रहते हो बिल्कुल अनछुए से

बिना अस्तित्व के...

 

मैं फिर भी तुम्हारे अक्स को देख खुश हो लेती हूँ

गहराती शाम में आसमान में बिखरे रंगों की तरह

अपनी खुली आँखों वाले सपनों में

भर लेती हूं पसंदीदा रंग भी

 

इस उम्मीद पर की तुम लौट आओगे एक दिन

पूरे अस्तित्व के साथ

मेरे अधूरेपन को पूरा करने के लिए...


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