कब पुरुषों की विचारधाराएं बदलेंगी..?
कब पुरुषों की विचारधाराएं बदलेंगी..?
कब तक सहें, हम अन्याय स्वयं पर,
कब लगेगी रोक इन विचारों पर,
क्या आदिकाल से अनंत काल तक,
लड़ाई सिर्फ यही रहेगी?
कि, कब पुरूषों की विचारधाराएं बदलेंगी?
युग बीते, सदियाँ बीतीं, बीत गए हर पल,
रीति बदली, रिवाज बदले, बदल गए हर मौसम,
आज बीता, कल बीता, बीत रहा है आनेवाला हर क्षण,
जो नहीं बदला, वह प्रतिपल गतिमान यह विचारधारा है,
प्रश्न सिर्फ यही है, की कब? आनेवाला सवेरा हमारा है।
जो सो जाऊँ, तो रातें कई हैं,
जो उठूं, तो सवेरा कहीं नही है,
जो इस रात का अंत और
उस सुबह का प्रारंभ है,
कहां से ? वह मंज़िल लाएं,
जो मिटा सके, इन अंधेरों को,
कहां से? वह दीप जलाएं,
प्रश्नों का सैलाब है उमड़ा हुआ,
तो, जवाबों का दरिया कहां से लाएं?
लगा दे जो सम्मान की लौ दिलों में,
वह मशाल कहां से जलाएं?
चिंतित है हर कोई, व्यथित है हर कोई,
जहां देखो वहां स्त्रियों की दशा है बिगड़ी हुई।
शर्मिंदगी का एक अश्क भी नहीं है,
अरे, इन पुरूषों को अपनी गलतियों का
अहसास भी नहीं है।
न अधिकार है, न सम्मान है,
न जाने ये कैसा जहान है,
बेड़ियों से जकड़ी सोच है,
अंधकार में डूबा हर रोज है,
स्वतंत्रता भी भ्रम में है,
कि इज्जत भी शर्म में है,
अरे, चीजों का भी बदलता स्वरूप है,
पर न जाने,इन मानसिकताओं का
ये कौन-सा रूप है।
हर जवाब में, प्रश्न चिन्ह है लगा हुआ,
न जाने मानवता को बदले, कितना वक्त हुआ।
इतनी शर्मसार तो कभी न थी,
की, शर्म को भी रोते मैंने देखा हुआ..!!!