कैसा यह प्रेम
कैसा यह प्रेम
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कृष्ण कहते हैं –
प्रेम करो निज कर्म से,
किन्तु है कैसा यह प्रेम ?
वह है
बुनना वस्त्र
ह्रदय के तारों से, ऐसे
जैसे पहनने वाली हो उसे तुम्हारी प्रियतमा.
वह है
रचना एक स्वर्ग
स्नेह से परिपूर्ण, ऐसे
जैसे बसने वाली हो उसमें तुम्हारी प्रियतमा.
वह है
बोना बीज कोमलता से और
काटना फसल आनंद से, ऐसे
जैसे आस्वादन करने वाली हो उस फल का तुम्हारी प्रियतमा.
वह है
निज आत्मा की स्निग्धता में
रस-सिक्त करना अपनी हर गतिविधि को
और यह जानना कि
देख रही हैं खड़ी होकर
इर्द-गिर्द हमारे -
आशा में
हमारे पूर्वजों की आत्माएं!