कागज, कश्ती और किनारे
कागज, कश्ती और किनारे
कागज भी मेरा था
कश्ती भी मेरी थी
जिस ओर जाना था
वो ख्वाबो की
बस्ती भी मेरी थी।
फर्क इतना हुआ में जज्बातो
के दरिया को राहे बना बह गयी
रिश्तो की एक मुसाफिरी को
नोका में मैने सवार किया।
पता चला मुसाफिरी तो उनकी थी
लेकिन अब मेरी ही कश्ती में
बैठ वो खुद को नाविक बना बैठे
मुझे जज्बातो औऱ विश्वास के
किस्से सुना वो मेरे जिन्दगी के कागज को
अपने ख्वाबो से सजाने लगे।
सब कुछ मेरा ही था
औऱ इनसब की हकदार भी में ही थी।
क्योंकि मैंने ही मुसाफिरी को
जोड़ा था, उम्मीदों, जज्बातो का रिश्ता एक जोड़ा था
फिर डूबी कविता गरल में
फिर टूटी कश्ती रिश्तों के द्वंद औऱ तूफा में
तो गलती मेरी ही थी।