जता नहीं पाए
जता नहीं पाए
दुःख तो हमें भी हुआ था, पर जता नहीं पाए।
गुस्सा तो हमें भी आया ही था, पर सुना नहीं पाए।
याद तो अब भी आती है उनकी,
उन यादों के पलों को जी भर जी भी नहीं पाए।
क्या इतना ही लगाव था तुम्हें मुझसे,
कुछ पल बीते नहीं, कि घर में मुझे बसा भी नहीं पाए।
बस क्या इतना ही था वो साथ जो उम्र भर निभा भी नहीं पाए।
हम तो पागल थे उस मोह में, मगर तुम गैरों के
कहने पर, हमें अपना समझ भी नहीं पाए।
क्या इतना वक़्त पास रहकर भी, तुम हमसे रीझ नहीं पाए ?
इतना कुर्बान होकर भी, अपने करीब देख नहीं पाए।
अपने कोमल हाथों की परवरिश को भी क्या तुम जग नहीं पाए ?
मेरे ग़मों की अहमुयतों को,
मन की आरजूओं को तुम इतनी भी क़दर नहीं कर पाए ?
मान लिया, मान लिया कि सब कहते हैं मुझे पराया धन।
पर तुम तो मुझे अपना बनाकर भी पराया ही कर पाए।
माना की जाना है मुझे दूसरे घर,
पर जब तक हूँ तब तक भी तुम मुझे अपना समझ नहीं पाए।
आज तो दूर हूँ मैं काफ़ी,
पर दूर होकर भी कुछ यादों को भुला नहीं पायी।
वो माँ तेरे हाथों जैसी रोटी तो मैं आज तक भी बना नहीं पाई।
और क्या ही कहने पापा आपकी चिंता के,
उस उम्मीद को आज भी भुला नहीं पाई।
माना की शादी की ज़िद्द मेरी ही थी,
माना की वहाँ जाने की ज़िद्द मेरी ही थी,
पर एक गुस्ताखी की ऐसी सज़ा भी हम झेल नहीं पा रहे।
"ये संसार है एक सपना यह कोई नहीं है अपना"
ये भी आपसे ही सुना है कई बार !
पर फ़ीकी है वो बातें, फ़ीके हैं वो पल,
जहाँ मिल ना पाए कोई अपना और
इस पल को भी हम लुभा नहीं पाए।