जीवन यात्रा
जीवन यात्रा
मनुष्य हूँ, जीवन की यात्रा में जब
अभिमान हावी हो जाएगा,
तब अपनों के निकट रहूँगा क्या ?
नित परिश्रम कर जब सामर्थ्य जुटा लूँगा,
तब दीन को संबल दे सकूँगा क्या ?
भ्रांतियाँ जब पोषित होंगी,
अहं ही को बस महत्व देंगी,
जीवन के उस मृत-शिखर पर
वरिष्ठ-कनिष्ठ का अंतर रख सकूँगा क्या ?
परिवर्तन का चक्र जब घूमेगा,
समय पवन के वेग सा गुजरेगा
उस धूलभरी आँधी में खुद स्वच्छ बचूँगा क्या ?
मेघगर्जन और अतिवृष्टि में भी,
शुष्क हो चुके उस कंठ को
सोम-तृप्त कर सकूँगा क्या ?
उत्कृष्टता की इस होड़ में जब
मृत्यु हावी हो चुकी होगी,
शैय्या पर शव होगा,
तब भी उत्कृष्ट रहूँगा क्या ?
