जीवन की धारा
जीवन की धारा
काहे ये मन भामरा भूले,
जीवन दीपक जो ये जले।
ये तो उसकी कृपा से मिले,
कर्म से इस गगन तले।
ना ये किसी दौलत से मिले,
ना शौरत से भी तो किसे मिले।
अपनी किए कर्म से फले,
ना तो किसीके माँग से मिले।
फिर दौलत का नशा क्यूँ ?
ये शौरत के घमंड क्यूँ ?
अपनी कर्म को भूले क्यूँ ?
माँग की जरूरते भी क्यूँ ?
मन भामरा तू सुन जरा,
खुद को पहचान तू जरा।
खुद के लक्ष तय करले,
अपनी कर्म अब चुन ले।
अब कर्म तो करना होगा,
आगे भी तुम्हे बढ़ना होगा।
जिन्दगी अब जो मिली तुम्हें,
कुछ दिन तो अब बची है।
अब तो तुम समझा कर,
कुछ भी और ना सोचा कर।
मन भामरा मान ले जरा,
यही तो है जीवन के धारा।
जब बुझेगा जीबन दीप,
जायेगा तू उनकी समीप।
ना रहेगा ये मन भामरा,
दिखेगा ये जीवन के धारा।