जीव और जगत
जीव और जगत
जीव तुझमें और जगत में, है फरक किस बात की,
ज्यों थोड़ा सा फर्क शामिल, मेघ और बरसात की।
वाटिका विस्तार सारा, फूल में बिखरा हुआ,
त्यों वीणा का सार सारा,राग में निखरा हुआ।
चाँदनी है क्या असल में चाँद का प्रतिबिंब है,
जीव की वैसी प्रतीति, गर्भ धारित डिम्ब है।
या रहो तुम धुल बन कर, कालिमा कढ़ते रहो,
या जलो तुम मोम बनकर धवलिमा गढ़ते रहो।
पर परिक्षण में लगो या, स्वयम के उत्थान में,
या निरिक्षण निज का हो चित, रत रहे निज त्राण में।
माँग तेरी क्या परम से, या कि दिन की, रात की,
जीव तुझमें और जगत में, बस फर्क इस बात की।