इश्क़ निभाया है
इश्क़ निभाया है
सोचती हूँ तो याद आती है तेरी बातें
तेरे बारे में न सोचूं तो तन्हा हो जाऊँ।
खालिस होकर मैने इश्क़ निभाया है
फिर कैसे पलीद सी गंगा हो जाऊँ।
ज़िन्दगी तेरे साथ निभाने की तलब है ,
फिर कैसे हार मान के फ़नाह हो जाऊँ।
क्यों तग़ाफ़ुल करते हो मुझे तुम,
फितूर-ए-इश्क़ भुलाकर, कैसे जुदा हो जाऊँ।
शिद्दत से चाहा है, तुझे हमनवा,
फिर कैसे सब दफ़ना के, बेवफा हो जाऊँ।
सुना है इनायत में बड़ी ताकत होती है ,
फिर कैसे अल्लाह के दर से दफ़ा हो जाऊँ।