इश्क का क्या कसूर
इश्क का क्या कसूर


आँखों से नजर चुराए तो नज़रों का क्या कसूर।
कभी मेरे सपने में आए तो सपनों का क्या कसूर।।
बड़ी सज धज के निकली हो शहर में।
कोई रूप पर मर जाए तो रूप का क्या कसूर ।।
यू हँसती हो तो दिल खिल जाता है मेरा कोई
दिल से दिल लगाए तो दिल का क्या कसूर।।
जुल्फे उड़ा कर जब वह मधुर गीत गुनगुनाए।
कोई गीत पर मर जाए तो गीत का क्या कसूर।।
तेरी बस्ती में हम रहते हैं जब से हुआ प्यार जब।
खुद मिलने आए तो बस्ती का क्या कसूर।।
सपनों की जिंदगी में हसीन ख़्वाब आते हैं ।
कोई सपनों में इश्क लड़ाए तो सपनों का
क्या कसूर ।।
इश्क में पागल होते हैं अक्सर बहुत से लोग।
जब पागलों को इश्क हो जाए तो इश्क का
क्या कसूर।।