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विजय बागची

Abstract

3.9  

विजय बागची

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इक उम्मीद ही सब खराब कर रही थी

इक उम्मीद ही सब खराब कर रही थी

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इक उम्मीद ही सब ख़राब कर रही थी,

मन में तेजाब भर रही थी,

ख़ुशी में उल्लास भर रही थी,

गम में भी उदास कर रही थी,

न चाहते हुए भी निराश कर रही थी,


इक उम्मीद ही सब ख़राब कर रही थी।

आसायें भरने का काम कर रही थी,

दर्द का भी अनचाहा शाम कर रही थी,

इक बचपन ही था जब हर रोज़ जी लेता था,


अब कल की चिंता परेसान कर रही थी,

इक उम्मीद ही सब ख़राब कर रही थी।

कभी तन की चिंता हैरान कर रही थी,

कभी मन की चिंता अनजान कर रही थी,


वो अकेली ही सब बेजान कर रही थी,

जो समस्याओं को आसान कर रही थी,

इक उम्मीद ही सब ख़राब कर रही थी।


सुना था इश्क़ निःस्वार्थ होता है,

पर सब का अपना स्वार्थ होता है,

इस 'सब' 'शब्द' में सब आते हैं,

वो जो कहते हैं, हम बहूत मानते हैं,

क्या निःस्वार्थ का मतलब जानते हैं ?


हम नें भी देखा है,

उम्मीदों में मां बाप भी बच्चों पर हक़ तानते हैं,

इसी ताल में रहकर,

प्रेमी भी, स्वार्थ को, इश्क़ कह डालते हैं,

यही छोटी-सी बात लोगों में तेजाब भर रही थी,

इक उम्मीद ही सब ख़राब कर रही थी।


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