इक नज़्म
इक नज़्म
कई दफा मैं सोचती हूं कि एक ऐसी नज़्म लिखी जाए,
अपने , तुम्हारे , सबके और रब के लिए लिखी जाए,
नज़्म कुछ ऐसी , कि सीधी रूह को स्पर्श कर जाए,
काली घनी लंबी रातों में, रोशनी की इक किरण बन जाए,
कोई ज़िंदगी की उलझनों से हार मान कर बैठ जाए,
तो वह नज़्म उसका हौंसला बन, उसके साथ खड़ी हो जाए,
जब, किसी का दुनियां और रब पर से ही विश्वास उठ जाए,
तो वह नज़्म इबादत बन, उसके खोए हुए विश्वास को वापस ले आए,
गर , इंसानों में इंसानियत को ही ढूंढना कहीं मुश्किल हो जाए,
तो वह नज़्म , इंसानियत की ताकत का एहसास इंसान को करा पाए,
काश , कभी इस जिंदा दिल नज़्म को कोई तो ज़िंदगी दे पाए,
मैं लिखूं या तुम लिखो , बस यह नज़्म जिंदा हो जाए।