इक अजनबी
इक अजनबी
खुद से भी ज्यादा चाहा है उसे मैंने
जो मेरा नहीं हो सकता..
जिसे पलकों पर बिठाया है
जिसे दिल में छुपा लिया है,
जिसका इजहार नहीं हो सकता।
वो मुलाकात ही ऐसी थी उस अजनबी से,
जिसकी फरियाद भी नहीं हो सकती
वो पल ही ऐसे बीत गये उसके साथ,
जिसे याद भी नहीं कर सकती
और ये यादें भी ऐसे हैं उसके
किसी को बता भी नहीं सकती
बस, छुपा सकती हूं इस दिल में
मन ही मन में आजमाती हूँ।
उसका गीत गा के महफिल सजा लेती हूं
ये कविता लिख कर पा लिया करती हूँ उसे।