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Akhtar Ali Shah

Abstract

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Akhtar Ali Shah

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ईश्वर आराधना

ईश्वर आराधना

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जन्म मरण से परे सनातन

है जो उसे रिझाता हूँ।

जिसका कोई रूप नहीं मैं

उसको शीश झुकाता हूँ।


घट घट से जो अमृत टपका

पीकर उसको अमर हुआ।

घाट घाट के पानी से मैं

ज्वाला जैसा प्रखर हुआ।


नहीं धूप से मिली सफेदी

अनुभव की गगरी लाया।

मेरा रब मेरा साकी है

उसकी मुझ पर है छाया।


कद्र करो लोगों मेरी मैं

उस रब के गुण गाता हूँ ।

जिसका कोई रूप नहीं मैं

उसको शीश झुकाता हूँ।


घटघट में वो बसा हुआ है

उसको जानो पहिचानो।

नर पूजा नारायण पूजा

है सच्चाई ये मानो।


उसमें शामिल सभी चराचर

वो तो फैला अंबर है।

वो बेघर होकर घरवाला

हर घर उसका ही घर है।


हूं अबोध पर जितना उसको

समझा है समझाता हूँ।

जिसका कोई रूप नहीं मैं

उसको शीश झुकाता हूँ।


रिज्क वही तो देता सबको

उसको मानो मत मानो।

ऐसा दाता नहीं मिलेगा

सोचो समझो नादानो।


सबको गले लगाने वाला

ही करूणाकर कहलाए।

सबकी पीर हरे वो ही तो

दयासिन्धु का पद पाए।


वो सबका है सब उसके हैं

दिया उसी का खाता हूँ।

जिसका कोई रूपी नही मैं

उसको शीश झुकाता हूं।


जिसको पैदा नहीं किसी ने

किया करे परवाह नहीं।

जो अनंत है जो असीम है

जिसकी पाते थाह नहीं।


उसे अनश्वर उसे सनातन

दुनिया ने भी माना है।

उसके कब्जे कुदरत इससे

कौन यहां अनजाना है।


वही पूज्य है सिर्फ अकेला

उसका ध्यान लगाता हूँ।

जिसका कोई रूप नही मैं

उसको शीश झुकाता हूँ।


वही सजा भी देता सबको

अच्छा भी फल देता है।

आमालों को वही तोलता

निर्बल को बल देता है।


हरपल की है खबर उसीको

रखता खाता बही वही।

वही जानता है दुनिया में

किसकी क्या औकात रही।

 

स्वर्ग नर्क के शासक की मैं

महिमा निशदिन गाता हूँ।

जिसका कोई रूप नहीं मैं

उसको शीश झुकाता हूं।


दुनिया में मालिक जो खुद को

कहते सारे छल करते।

अपने लिए पाप की गठरी

भारी करते कब डरते।


मालिक तो मालिक होता है

उस पर हुक्म नहीं चलता।

उसकी बिना रजा के कोई

दीपक कभी नहीं जलता।


जो मुहताज नहीं है जग मैं

उसको मित्र बनाता हूँ।

जिसका कोई रूप नहीं मैं

उसको शीश झुकाता हूँ।


बंदे सभी उसी के तो हैं

फिर क्यों उससे दूरी है।

राजा वही रियाया हम हैं

फिर कैसी मजबूरी है।


उसको शीश झुकाने में क्यों

दिल अपना कतराता है।

सच्चाई से दूर झूठ की

दुनिया में खो जाता है।


मैं "अनन्त" सेवक हूँ उसका

सेवा कर सुख पाता हूँ।

जिसका कोई रूप नहीं मैं

उसको शीश झुकाता हूं।


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