हृदय -कमल
हृदय -कमल
जब पराजय से मैं ठिठुरने लगूँगा,
असीम-द्वंद्व के चट्टानों से फिसलने लगूँगा,
तब इस मन मंदिर में तेरी ही अंशु- माला सजेगी |
जब अपमान से मैं सिकुड़ने लगूँगा,
बाण-कटाक्ष से भरे युद्ध में रक्त-रंजीत होने लगूँगा,
तब इस ऊर्जित तपोवन में तेरी ही दहाड़ गरजेगी ।
जब असत्य से मैं दबने लगूँगा,
निर्मूल-आकुलता की बेड़ियों से बँधने लगूँगा,
तब इस निर्मल नगरी में तेरी ही प्रज्वलता छलकेगी।
जब इंकार से मैं गुमने लगूँगा,
दर्द- आत्मरस के चक्रव्यूह में फंसने लगूँगा,
तब इस बहुमुखी ब्राह्मणड में तेरी ही तरंग गूंजेगी।
हे रामकृष्ण !
सहस्र श्वेत कमल तेरे ही चरणों तले सुगंधित होकर,
मेरे हृदय में सदा के लिए विराजेगी !