"हम तुम मिलेंगे कही"
"हम तुम मिलेंगे कही"
शांत में एकांत में,
हिंद में प्रशांत में,
दरिया में नदियां में,
गागर में सागर में,
नीर में क्षीर में,
राँझे में हीर में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
गीता में कुरान में,
वेद में पुराण मे,
मानस की चौपाई में,
ख्य्याम की रूबाई में,
मंदिर में मस्जिद में,
गुरुद्वारे में चर्च में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
ज्योति में प्रकाश में,
धरती में आकाश में,
सेहरा में जंगल में,
चांद में मंगल में,
नजारों में सितारों में,
बर्फ में अंगारों में,
हम तुम मिलेंगे कहीं,
धूप में छांव में,
शहर में गांव में,
बागों में गलियों में,
फूलों में कलियों में,
पतझड़ में बहार में
रिमझिम में फुहार में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
नींद में ख्वाब में,
सोच में ख्याल में,
काम में क्रोध में,
मिलन में विछोह,
गीत में संगीत में,
प्रेम में प्रीति में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
सुबह में शाम,
दिन में रात में,
खेत में रेत में,
श्याम में श्वेत में,
मेले में अकेले में,
हिज्र में वस्ल में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
मीरा में राधा में,
राम में सीता में,
मित्र में शत्रु में,
कृष्ण में सुदामा में,
कुटीर में पर्ण में,
अर्जुन में कर्ण में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
सच में झूठ में,
दान में लूट में,
ढील में छूट में,
एकता में फूट में,
धोती में सूट में,
कपास में जूट में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
तर्पण में अर्पण में,
शीशे में दर्पण में,
तीर में कमान में,
धनुष में कृपाण में,
कर्षण में घर्षण में,
जवान में किसान में,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
होश में जोश में,
जफा में वफा में,
अदा में खफा में,
बातों में आंखों में,
बांहों में राहो में,
मंजिल में पनाहों,
हम तुम मिलेंगे कहीं..
वहां से आगे कोई दुनिया दिखाई नहीं पड़ती है,
उस दरिया के किनारे पर जहां से धरती आकाश मिलते दिखाई पड़ते है,..
वहीं बैठकर अपलक निहारेंगे एक दूसरे को,
जैसे हमारी तुम्हारी सदियों की पहचान हो,,
जहाँ से जिंदगी बस दो दिन की मेहमान हो..!!