हौले कविता मैं गढ़ता हूँ
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ


मन को जब खंगाला मैंने,
क्या बोलूँ क्या पाया मैंने।
अति कठिन है मित्र तथ्य वो,
बामुश्किल ही मैं कहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
हृदय रुष्ट है कोलाहल में,
जीवन के इस हलाहल ने,
जाने कितने चेहरे गढ़े,
दिखना मुश्किल वो होता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
जिस पथ का राही था मैं तो,
प्यास रही थी जिसकी मुझको,
निज सत्य का उद्घाटन करना,
मुश्किल होता मैं खोता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
जाने राह कौन सी उत्तम,
करता रहता नित मन चिंतन,
योग कठिन अति भोग भ्रमित मैं,
अक्सर विस्मय में रहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
ज्ञात नहीं मुझे क्या पथ्य है,
इस जीवन का क्या सत्य है,
पथ्य सत्य तथ्यों में उलझन,
राह ना कोई चुन पाता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।