है पथ जाने को मंजिल तक
है पथ जाने को मंजिल तक
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है पथ जाने को मंजिल तक,
पर राहें हैं आसान नहीं,
खतरों को देख लौट जाए जो,
मैं वैसा इंसान नहीं।
पर राह खडी़ है,
खुद में मुसीबतों का अनन्त तूफाँन लिए,
अपने हर कदम को मैं पीछे खीँचूँ,
ऐसे प्रयत्न बारम्बार किए
उन राहों से कहदो जाके,
आया एक सिरफिरा मस्ताना,
हर खतरों से लड़ने का,
उसने मन मे है अब ठाना।
पत्थर को चीर दिखाया जिसने,
ये उस समाज का दीपक है,
थे भगत सिंह आजाद जहाँ के,
ये उस मिट्टी का कुलदीपक है।
जाओ उन मृतकों से कहदो,
डर कर कब तक जी पाओगे,
झुका के मस्तक इस समाज में,
क्या खुद से नजर मिला पाओगे।
उठो अभी से अब भी वक्त है,
पर्वत को चकनाचूर करो,
हमसे भी ऊँचे हैं वे,
उनके इस मद को अब तुम दूर करो।