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AJAY AMITABH SUMAN

Abstract

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AJAY AMITABH SUMAN

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हाँ मैं बस मिटना चाहूँ

हाँ मैं बस मिटना चाहूँ

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हाँ मैं बस कहना चाहूँ,

हाँ मैं बस लिखना चाहूँ,

जो नभ में थल में तारों में,

जो सूरज चाँद सितारों में।


सागर के अतुलित धारों में,

और सौर मंडल हजारों में,

जो घटाटोप अंधियारों में,

और मरुस्थल बंजारों में।


परमाणु में जो अणुओं में,

जो असुर सुर नर मनुओं में,

देवों के कभी हथियार बने,

कभी बने दैत्य भी वार करे।


जो पशु में पंछी नील गगन,

मछली में जो है नीर मगन, 

जो फूल पेड़ को पानी दे,

कि मूक-बधिरों को वाणी दे।


जिससे अग्नि लेती अंगार,

सावन अर्जित करे फुहार,

श्वांसों का जो है वायु प्राण,

मन में संचित अमर ज्ञान।


जिससे रक्त की बहे धार,

वो स्रष्टा भी है करे संहार,

है फसलों की हरियाली में,

जो बहे अन्न में थाली में।


जो विणा के है तारों में,

हंसों के झुंड कतारों में,

कभी कलियों के श्रृंगार बने,

कभी वल्लरियों की हार बने।


तो कभी प्रलय की बने आग ,

कभी राग हो कभी वीतराग ,

निर्द्वंद्व वही और द्वंद्वालिप्त,

है निरासक्त और सर्वलिप्त।

 

ये सृष्टि जिससे चलती है,

ये सृष्टि जिसमें फलती है,

जो परम तत्व है माया भी,

तो ज्ञान पुंज है छाया भी।


जो सुख दुख के भी बसे पार ,

जिसकी रचना पूरा संसार ,

उसी ईश्वर की मैं लिखता हूँ,

उसी ईश्वर की मैं पढ़ता हूँ।


उसी ईश्वर की मैं कहता हूँ,

उसी ईश्वर की मैं सुनता हूँ,

उसी ईश्वर की मैं गुनता हूँ,

उसी ईश्वर को मैं बुनता हूँ।


हाँ वो प्राणों के प्यार बसे,

ना दुजा और व्यापार रसे,

अर्पित उसपे है अहम भाव,

ऐसा उसका निज पे प्रभाव।


कि मैं बस मिटना ही चाहूँ,

कि मैं उस ईश्वर को चाहूँ,

कि मैं उस ईश्वर को पाऊँ,

हाँ वो ईश्वर ही हो जाऊं ।


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