गूंज
गूंज


खुदको देखती हूँ जब आईने पे
तो अपने आप सिहर उठती हूँ
क्या लड़की होना एक गुनाह है
ये सवाल खुदसे पूछती हूँ।
कहते हैं बदल गयी है दुनिया
तरकी की उमड़ता गुलाल में
गीतों-ग़ज़लोंसे अलग ये एक नया दौर
छलकता संगीत की तेज-तर्रार में।
पर ये क्या हुआ इस समाज को
जो थम गई बही अतीत में
ना बदलाहे कुछ ना बदलेगा
वो बिचार और बही सोच में।
पैदा होगी एक लड़की
तो भूचाल आ जातीहै घर में
बस एक ही मकसद सभी का
मिमजूल कर कैसे उसे उजाड़ दें।
उस कोसिस से अगर बच गई
तो मुसीबत और भी आती है
बढ़ती उम्र के साथ साथ
जीना दूभर हो जाती है।
हरदिन हरपल खबरों का
शिर्षक ही बनती हैं औरतें
कुछ अच्छा नहीं बस बुराई की
क्या ऐसी ही ज़िंदगी जी जाती है ?
आग लग जाती है तनमन में
खुद पे नफरत अति है
ऐसा कबतक चलता रहेगा और
हुम् यूँ सब सहती रहेंगे।
कुछ तो लोग कहेंगे
पर जीना होगा खुद हमको
उस सोच को जो मिटाना है
तय करना है रास्ता खुद को।
खड़ा करदो सख्त दिबारें
परम्परा और असूलों का
फेंको तेजाब की कहर
या बिछा दो अनगिनत कांटे रास्ते पे।
फिर भी लांध कर आऊँगी
सभी अड़चनें और मुश्किलों को
बदलना होगा खुद मुझको
यह सोच और विचारों को।
जकड़ दो सर से पैर तक
चाहे जितनी भी मोती जंज़ीरें
फेंक दो तूफान की दलदल में
या रौंद डालो बारबार ये शरीर।
फिरभी तोड़ के आऊँगी वो जंजीरें
उस मोल और असूलों की
खुद जिउ अपनी चाह की
ना रहेगी मान-अपमान का।
लाखों तूफान से उभर कर
गर्दिश से ये गूंज आएगी
औरत तुझे लड़ना होगा,
उस गूंज को तू निभाएगी।