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Kriti Gupta

Inspirational

4  

Kriti Gupta

Inspirational

तलाश खुद की........

तलाश खुद की........

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ये कहानी है, मेरे जज्बातों के जुबाँ से निकल, हवा में खो जाने से, 

उनका दिल में ही ठहर, पन्नों पर उतर जाने तक की;

ये वो सफर है, जहांँ मंजिलों को छोड़, राहों को पकड़ लिया मैंने; 

ये वो आईना है, जो टूटा है मगर, तस्वीरें पूरी बनाता है;

ये वो वक्त है, जो अधूरा है मगर, दिन पूरा निकल जाता है।


वो पल वहीं रुक गया; 

हर जज़्बात वहीं जाकर टूट गया; 

मेरे आँसू वहीं ठहर गए;

मेरी मुस्कान उस के आगे बड़ी ही नहीं; 

मैं वहीं-की-वहीं बिखर गई, 

जहाँ वो मुझे गिरा, वापस लौट गया।


पर मैं नहीं लौट रही, 

इसलिए नहीं, क्योंकि मेरी मंजिल आगे हैं,

पर शायद इसलिए कि, जो पीछे है, वो मेरी मंजिल नहीं।

वो खुद्दार है, 

या शायद विश्वास ही नहीं कर पाया मुझपे; 

वो झूठा है, 

जो कहता था कि, प्यार करता है वो मुझसे। 

प्यार के हर पर्दे में, 

मोह के बंधन बाँधता गया वो मुझसे; 

और जो जरूरत खत्म हो गई मेरी, 

अपनी राहें मोड़, वहीं छोड़ गया मुझको।


बहती हवा का स्पर्श भी आज, 

काँटे-सा है; 

दिल की धड़कनें तेज़ है मेरी, 

फिर भी कहीं कुछ सन्नाटे-सा है। 

दुख नहीं मुझे, तुम्हारे दूर हो जाने का, 

दुख है-

उन बरसातों के सूखे होने का, 

उन रातों के नडुहीन होने का, 

उन वादों के मिथ्या होने का;

गम नहीं, तुम्हारे धुंध में खो जाने का, 

गम है, तुम्हारे धुंध हो जाने का; 

दर्द नहीं, तुम्हारे झूठे होने का, 

दर्द है, मेरे सच के वहम हो जाने का; 

संताप नहीं, तुम्हारे छल के खेल का, 

संताप है, मेरे निश्छल प्रेम का।


बस अब चुप कर, 

कितना रोएगी? 

राहगीर तो खो गया, 

अब क्या राहें भी खोएगी? 

मूल्यवान रत्नों से जो तोले तुझको, 

उसे कहाँ भनक तेरे अमूल्य होने की; 

तू आजाद पंछी है नाभ की, 

कोई चिड़िया नहीं सोने की; 

तेरा घर पूरा आकाश है, 

तो कोई गुंजाइश ही नहीं उसे खोने की।


यूँ तो हर पक्षी सूरज तक का सफर तय करता है, 

पर शाम ढलते-ढलते वह अपनी राहे खो देता है; 

सूरजमुखी भी सूर्यास्त तक झुक जाता है, 

सूर्योदय होते-होते चकोर भी कहीं छुप जाता है।

पर तुम इन-सा मत बनना;

तुम शीशा हो तो,

बनना काँच भी;

तुम अच्छाई का बिंब हो,

तो बुराई को चुभना भी;

तुम फूलों की सुगंध हो तो,

काँटों-सी रक्षक बनना भी।

तुम कोई किनारा नहीं ठहरने को,

तुम पूरा समंदर हो;

तुम कोई ऊँचाई नहीं छूने को,

तुम सारा अंबर हो।

फिर खुद को यूँ सीमाओं में क्यों बाँधना?

खुद को खुद से ही क्यों कम अाकना?

किसी के प्यार को अपना सब कुछ मान कर,

क्यों अपने सब कुछ पर नजर भी न डालना?


चलो, आज उसकी बनाई मंजिलों को बेराह कर,

अपनी चाहतों में उड़ान भरते हैं;

अपने आसमानों को रंग,

उसके रंगों को भी बेरंग करते हैं;

तो चलो, उसके बारे में सोचना छोड़,

'उस'; शब्द को भी ज़हन से निकाल फेकते हैं; 

इस भूल के अध्याय का अंत कर, 

अपने अस्तित्व की ओर बढ़ते हैं।


राहों पर चलते-चलते मंजिल आ जाएगी,

आसमान में उड़ते-उड़ते ख्वाहिशें पूरी हो जाएँगी;

एक मंजिल तक पहुँचुंगी, तो दूसरी दिख जाएगी;

एक ख्वाहिश पूरी होगी, तो हजारों सामने आएँगी।

पर क्या मंजिल-पर-मंजिल तक जाना, 

ख्वाहिशों-पर-ख्वाहिशें पूरी करना मेरा काम है?

क्या ये खुशबुओं भरी राहे,                           

ये रंगों में डूबी हवाएँ,

ये चैन की साँस,

और ये खूबसूरत-सा आसमान मेरा नहीं?

क्या मंजिल की होड़ में,

मै राहों को छोड़ दूँ।

अब आगे बढ़,

खुद को झूठलाना नहीं;

और पीछे मुड़,

झूठ तक जाना नहीं।

ये चलती राहे ही बहुत है,

मेरे ठहरने के लिए;

मेरे टूटे ख्वाब ही बहुत हैं,

एक नए आशियाने के लिए।

एक ऐसा आशियाना, जो किसी की मंजिल नहीं होगा,

पर उस तक आने की ख्वाहिश,

हर मंजिल तक जाने वाले की होगी;

एक ऐसा आशियाना, जो सूरज को नमन कर,

रोशनी फैलाना सिखलाएगा;

जो चंद्रमा की शीतलता को,

ज़मी पर लाना सिखलाएगा;

जो खुशबुओं का आगमन,

हर जिंदगी में करवाएगा;

जो तारों-सी चमक,

हर आँख में लाएगा,

एक ऐसा आशियाना, जो किसी का न होकर भी,

सबका बन जाएगा,

सबका बन जाएगा।


         


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