अनजाना मित्र
अनजाना मित्र
एक सवेरे की बात है
जब न कर पाए मुझको आकर्षित
वे पेड़-ंपौधे
वे सूरज की जोशीली तरंगें
वो ठंडी बहती मंद हवाएँ
और न ही पंछियों की सुरमयी बातें।
हाँलाकि रहा करते थे ये सभी
मेरे आकर्षण के केंद्र
पर उस दिन हार गए थे सब
क्योंकि दाखिल हुए
मेरे समक्ष, एक अनजाने से पेड़।
वे महाशय न ही थे एक पेड़, न ही पौधे
पौधे से थे कुछ बड़े
और पेड़ बनने से थे
अभी तनिक छोटे।
उनका था अंदाज़ निराला
थोड़े इठला रहे थे
थोड़े शर्मा रहे थे
अपनी हरियाली पर थे गौरंवित
कभी मंत्रमुग्ध होकर लहरहा रहे थे।
नभ पर चढ़े सूरज पूछ उठे मुझसे
कि नाम क्या है जनाब का
मेरा परिचय तो कराएँ इनसे।
मैं पूछ पड़ा, हे अनजाने पेड़!
कौन हो तुम, कहाँ से आए हो
क्या नाम है तुम्हारा
क्या इस जगरूपी बगिया में करने आए हो?
वो बोले कि मेरा कोई नाम नहीं
न सिखलाया, न ही बतलाया मुझको किसी ने
कि सिर्फ़ तुम्हारा काम है यही।
बस जितना भी कर सकता हूँ
उतना करने आया हूँ
जितनी भी मिठास है मुझमें
उससे इस जग को
पोषित करने में समाया हूँ।
कुछ दिनों बाद यूँ ही बैठा था मैं
कि माँ बोलीं मुझसे
कि उगे हैं हमारे घर के बगल में
एक पपीते के पेड़।
दौड़ा-ंदौड़ा गया मैं उनके पास
बोला कि पता है आपको
आपका नाम है पपीता का पेड़।
थोड़ा मुसकुराकर वे पेड़ बोले
कि हे मानव!
यह भी मेरा नाम नहीं
पपीता तो मेरा केवल फल मात्र है
नहीं जान पाए तुम
अब भी मेरा अस्तित्व सही।
यूँ ही देखता रहा
कई दिन मैं उन्हें
और वे मुझे।
पर कुछ दिन बाद
उनकी मुस्कान खोने लगी
उनके पत्ते जो खिले रहा करते थे
वे अब अकड़ने और मुर्झाने लगे।
ज्ञात हुआ कि प्रतिदिन
तोड़ा करते थे लोग उनके पत्ते
अपनी पीड़ा मिटाने के लिए।
कभी-ंकभार जब वो पेड़ विरोध करते
तो लगा देते थे पूरी जान वे
उनको खींचने में।
उनकी पीड़ा को लोग देखकर भी
अनदेखा करने लगे।
किंतु वह पेड़ न चीखा
न ही चिल्लाया
उसने अपनी पीड़ा को
अपनी मुस्कान से छिपाया।
दिन-ंप्रतिदिन उनके पत्तों की संख्या
कम होती गई
बीस से दस
दस से तीन ही रह गई।
उनका स्वास्थय अब गड़बड़ाने लगा
जवानी से पहले ही उनको
अपना बुढ़ापा नज़दीक आता दिखने लगा।
अब वह स्वपोषी
जो दूसरों को पोषित करने आया था
लोगों का यह भयानक स्वार्थी रूप देख
स्वयं का भी ख्याल रखने में
लाचार रह गया।
अब उसका राजसी ठाठ
विलुप्त-ंसा होने लगा
फिर किसी ने, उस मृत के
वो तीन अंगों को भी उखाड़कर
उसे मृत घोषित कर दिया।
अब जब कभी भी
उस जगह पर नज़र पड़ती है
तो उदास हो उठता हूँ
कि कभी रहा करते थे वहाँ
एक ऐसे मित्र भी
जो इठलाते थे, शर्माते थे
और पहेलियाँ बुझाते थे।
किंतु वो मूक
न होकर भी है वहाँ पर
और मुसकुराकर आज भी कहता हे मुझे
कि मेरा जीवन तो था
उसी मरहम में
जिसने मिटा दिया
लोगों की पीड़ा को
दो पलो में।
’’बस मित्र यही अफ़सोस रहा
कि न दे पाया तुम्हें अपना पपीता मैं।‘‘