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VRAJESH CHAUHAN

Abstract

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VRAJESH CHAUHAN

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गूंगापन कभी गुनाह होता है

गूंगापन कभी गुनाह होता है

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जुबान का गूंगापन किस्मत की बात होती है तो,

हृदय का गूंगापन नाकाबिलेमाफी विकार होता है

इंसान इंसान बनकर जिन्दगी ना व्यतीत करे तो,

धरती पर हिंसक जानवरों का अधिकार होता है !


बगीचे के पौधों को घुनती दीमक को कुछ न करो तो,

एक दिन दरवाजा ही धाराशायी हो जाता है

अनेकों बार हृदय की उदासीनता हराती हैं,

इन्सान अपनी पथभ्रमित प्रवृत्तियों का शिकार होता है !


सामर्थ्य जब हादसों से हलकान बेबसी को,

चन्द लब्जों तक की भी सहानुभूति देने में कतराता है

कायरता के गूंगेपन से वह जिन्दगी के चेहरा नहीं,

चौराहे पर जिंदगी का निर्जीव इश्तहार होता है !


मंच पर पढ़ी गई भावविभोर रचना से मन तो द्रवित हो जाये,

पर हाथ व जुबान गुरूर से गूंगे रहें तो

खुद की स्वनिर्मित श्रेष्ठता के पिंजरे में,

एक मूक मगरूर कैदी की मजबूरी का इजहार होता है !


विविधता के इस जंगल में बहुत तफरीह हो गई,

अब तो एक बीज अपने नाम का रोप दे मुसाफिर

अपने जीवन की सार्थकता कह जा वरना

अंतिम विदा के वक्त चेहरे पर गूंगापन ही सवार होता है !


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