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VRAJESH CHAUHAN

Abstract

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VRAJESH CHAUHAN

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आग की महक

आग की महक

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न ये आसमां का रंग बदलती है

और न ही जंगल के वजूद को मिटाती है,

ना जाने कैसी ये आग है


जिसे मैं ही सुनता हूँ,

समझता हूँ, मेरे द्वारा ईजाद किया मेरी

मुफलिसीयों का एक अनोखा राग है !


एक कस्तूरी की सी खुशबू के अलाव में

हौले हौले सिंदूरी रंग के

कवच में बराबर सुलगता रहता हूं


अपने वजूद के घोंसले में

कुछ अहसास पाल रहा हूँ,

मुकद्दर ही तय करेगा ये कोयल है या काग है !


उम्र के साथ जिस्म की हरकत

और रंग की चमक दोनों ही

अपना व्यवहार में बदलाव करने लगे हैं


बरसों की सफाई और धुलाई के बाद भी

जिसने रूप नहीं बदला,

एक रंगहीन आकारविहीन दाग है !


मैंने कितनी ही बार राहगीरों को

सर्द कंपकपाती रात में इसके ताप से

सुकून का सत्कार देना चाहा


पर किसी कश्ती ने मुझे समन्दर न माना,

कभी कभी मुझे भी लगता है

ये मेरी तमन्नाओं का झाग है !


फिर भी यह आग जल रही है

और बदस्तूर जलती ही रहेगी

मेरे यकीन के बेजुबान वादों की तरह


क्यूंकि मैं ही नहीं सब जानते हैं,

पहले अग्नि को प्रज्वलित करा जाता है

उसके बाद आता फाग है !


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