गुरू कि महिमा
गुरू कि महिमा


मेरे जीवन के अंधेरों में वो प्रकाश बनकर आया था
इस दुनिया में पहली झलक मे माँ के रूप मे पाया था
पकड़ के उंगली मेरी, चलना उसने सिखाया था
फिर से वो गुरु मेरे पिता के रूप में आया था
हिम्मत जब मैं हारता दे टेका मुझे संवारा था
वो गुरु अब, भाई - बहन के रूप में आया था
बोलना चलना सीख गया, अब बाल मंदिर में मैं जाता हूं
यहां भी जाकर मैं, एक नए गुरु के दर्शन पाता हूं
अब निकल पड़ा मैं पाठशाला, कुछ खुद को मैं संभाल पता हूं
अब जीवन का मैं, जीवों का, निर्जीवों का ज्ञान मैं पाता हूं
अब मैं दिन का आधा हिस्सा अपने गुरु के संग बिताता हूं
मैं सीखता हूं कुछ तो कुछ दर्द उनसे जताता हूं
मैं सच कहूँगा यारों ...
होकर मैं नाराज़ कभी भला बुरा भी कहकर अता हूं
फिर जान कर कुर्बानी उनकी मैं मन ही मन पछताता हूं
ऐसे ही गुरुओं के मदद से आगे बढ़ता चलता हूं
मैं फिसलता हूं, मैं उठता हूं, मैं गुरु की सीख से संभलता हूं
निकल पड़ा मैं महाविद्यालय अब गुरु से ना मैं डरता हूं
कभी करता हूं मनमानी अपनी, पर दिल में आदर रखता हूं
कर के पूरी शिक्षा अब वो दिन मुझे याद आ जाते है
फिर से आज के पल मुझे यादों के सफर ले जाते है
कभी माँ से बोलना सिखाता है ,
कभी पिता से चलना सिखाता है
कभी वर्णमाला ये बुलवता है
कभी गुरु की डांट याद दिलाता है
ये हँसाता है रुलाता है
हर नई सीख को सिखाता है
अंतिम ये पल मुझ को गुरु की महिमा बताता है
आगे चल कर भी कोई ना कोई गुरु के रूप में अता है
कभी रिश्तों में कभी नातों से कभी अनजान बन सीखा जाता है
कभी इस रूप कभी उस रूप गुरु कई रूप में आता है
कभी छोड़े ना मझधार में वो
हरदम वो साथ निभाता है
बस यही गुरु कहलाता है
हाँ यही गुरु कहलाता है...