गज़ल
गज़ल
आशियाना बनाए बैठे थे जो पेड़ो पर,
उन्हें भी आज सुकून मिल रहा है।
जो इंसान समझते थे मुझसे बड़ा ताकतवर नहीं,
उनका भी आज पतलून हिल रहा है ।
प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा था जो,
उसी की तो सजा मिल रही है।
दर्द तो ये है कि
बेकसूर भी पिस रहा है।
मगर जो राम-राम करते रहे सदा,
वो मद मस्त सदा जीते रहे है।
