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Virendra Bharti

Abstract

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Virendra Bharti

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गज़ल

गज़ल

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आशियाना बनाए बैठे थे जो पेड़ो पर,

उन्हें भी आज सुकून मिल रहा है।


जो इंसान समझते थे मुझसे बड़ा ताकतवर नहीं,

उनका भी आज पतलून हिल रहा है ।


प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा था जो,

उसी की तो सजा मिल रही है।


दर्द तो ये है कि

बेकसूर भी पिस रहा है।


मगर जो राम-राम करते रहे सदा,

वो मद मस्त सदा जीते रहे है।


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