ग़ज़ल हूं मैं
ग़ज़ल हूं मैं
यूं खिलते हुए कवल की ताज़ा ग़ज़ल हूं मैं,
समुंदर से निकले मोती का हल हूं मैं।
बरसते तूफानों में अश्कों सा बहता बादल हूं मैं,
गर्दे गुब्बारों से भरी हवाओं का मल हूं मैं।
तेरी मदहोश निगाहों में खोया तेरा कल हूं मैं,
झरनों से गुनगुनाता हुआ गिरता जल हूं मैं।
तेरी ख्वाहिशों का अंत में मिलने वाला फल हूं मैं,
दिल की बंजर-सी हसरतों का उपजाऊ थल हूं मैं।
ख्वाबों में आकर मचा दे जो, वो हलचल हूं मैं,
बेख़ौफ़ इरादों से भरी नदियों की कलकल हूं मैं।
उबड़ खाबड़ चट्टानों में दो पल रुक जाएं वह समतल हूं मैं,
खुशनुमा पेड़ पौधों से सजी चट्टानों का अचल हूं मैं।
एक बच्चे पर गिरा मां की दुलार का आंचल हूं मैं,
अब तो जानो यारों न जाने कितना सरल हूं मैं।
अगर तुम साथ हो तो फिर जिंदगी में सफल हूं मैं,
अगर तुम ना जानो तो फिर बेकार-सी दलदल हूं मैं।
रिश्तों के खातिर खुद को झुका दूं वह पहली पहल हूं मैं,
इस बेरहम सी दुनिया की हंसी का मिसाल-ए-छल हूं मैं,
पर फिर भी,
यूं खिलते हुए कवल की ताज़ा-ताज़ा ग़ज़ल हूं मैं।