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SUMAN ARPAN

Abstract

4.3  

SUMAN ARPAN

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गिरवी ज़िन्दगी

गिरवी ज़िन्दगी

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136


लिख न पाई जो किताब,आज उसे पढ़ने की ज़िद कर ली

हसरतों से अपनी हार कर,आज बेबसी से दोस्ती कर ली

ख़्वाब.खवाहिशें और अरमां तो खूब संजोए थे हमने,

वक़्त के खेल और मजबूरियों से आज हमने सुलह कर ली


हमारा दामन छुड़ा कर उम्मीद बार बार अपने टुकड़े जोड़ती,

नादां है समझती नहीं,आईना है हम और पत्थरों से दोस्ती कर ली

मुद्दतें गुजर गई,पर ज़िन्दगी का हिसाब बाक़ी था ?

कहाँ हम थेआधे,कहाँ हम थे पुरे और कहाँ गिरवी ज़िन्दगी कर ली

सौदा तो इश्क़ और वफ़ा का था


शोहरते नेकियाँ रख कर तराज़ू में अब वफ़ा हासिल हमने कर ली

किसी के ख़ंजर से ज़ख़्मी है दिल अब तलक,

इश्क़ के नासूरों से अब हमने मोहब्बत कर ली

इबादत का मंजर अब ख़त्म हुआ मेरे सनम

फ़क़ीरी दरबदर सरेआम अब हमने कर ली


बुलन्दी की अब चाह नहीं दिलबर,

मैंने अरमानों की राख अब सर माथे कर ली’

बेशुमार चाहते थी ज़िन्दगी में,

पर वसीयतें ज़िन्दगी किसी और ने अपने नाम कर ली


अब क्या गुप्तगु करूँ तुम से गिरवी ज़िन्दगी ?

तुमने तो मेरी साँसें भी अपने नाम कर ली।


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