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Anand Prakash Jain

Abstract Tragedy Inspirational

4.7  

Anand Prakash Jain

Abstract Tragedy Inspirational

एक वहशी की सज़ा मुकम्मल

एक वहशी की सज़ा मुकम्मल

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होते है कुछ वहशी दरिंदे,

जिनकी आंखें औरत में ना कभी बहन,

ना मां को कभी भी देख पाएगी,

चाहें जितनी आत्म ग्लानि हो भीतर से,

हर आवाज़ को अनसुना कर,

उठते ही हवस को ललचाएगी ।


कभी देह पर दृष्टि गढ़ाकर,

कभी लिबाज़ से दुपट्टा उड़ाकर,

कभी शक्ल पर एसिड डालकर,

कभी झुंड में बंधक बनाकर,


कभी मानवता शूली चढ़ाकर,

कभी लाज़ का भय दिखाकर,

हर हद वो पर कर जाते है,

गरिमामई उस औरत की इज्ज़त,

तार तार कर जाते है।


समय बड़ा न्यायी,

खेल कुछ ऐसा कर दिखलाता है,

जो बच जाएं दरिंदा कानून के फन से,

एक कन्या का पिता उसे बनाता है;

बापलन बीत जाए जब तिस पर,

यौवन नज़दीक आए जब उस पर,


एक राग उसे लगाता है,

परिवार बैठता है अब मंडप सजाकर,

बेटी को ब्याहने की आस लगाकर,

तब लाज को तार तार कर,

उस वहशी के मुख पर, कालिख लगाकर,

समय सज़ा मुकम्मल कर जाता है,


कोई मनचला महबूब उसे

मंडप से ही उड़ा ले जाता है।


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