एक स्त्री के मन की उलझन
एक स्त्री के मन की उलझन
मुझे आजादी चाहिये विचारों की,
मेरे सारे जरूरी अधिकारों की,
अंग्रजों की गुलामी से तो हम हो गये आजाद
लेकिन असल आजादी अभी बाकी है,
क्या सिर्फ आजाद होने के लिये आजादी शब्द ही काफी है,
मैं क्यों सुरक्षित नहीं अकेली आधी रात सड़को पर,
क्यों मेरा समाज में खुलकर हँसना गुनाह माना जाता है,
क्यों मुझे ही सारे रीति-रिवाज निभाने है,
क्यों मुझे ही हमेशा मिलते तानें है,
समानता का अधिकार आज भी दिखावा है,
क्यों औरत को ही मर्यादा का बोझ उठाना है,
क्यों औरत आज भी अपने विचार खुलकर नहीं रख सकती,
क्यों वो अपना रास्ता खुद नहीं चुन सकती,
मैं ये नहीं कहती कि मुझे अधिकार नहीं मिला,
लेकिन मुझे पूरी आजादी न मिल पाने का है गिला।