एक पल तो रुको
एक पल तो रुको
आज न जाने ये कैसा दौर है, आदमी ही आदमी से दूर है।
चंद रुपये कमाने चले सब मगर,आदमी खुद से हुआ दूर है।
चंद पैसे ही कमाते थे हम मगर,दिलो में प्यार न कभी कम था।
वो दादी और नानी की कहानियां, दादा और नाना का स्नेह था।
साधना थी संग,चाहे साधन नही थे,संघर्षो ने विजय पथ बुने थे।
आज हार जाते हैं पल में सभी,शूल से फूल घबराने ही लगे हैं।।
है पथ वही,है जीवन वही, पदचिन्हों से जो लिखे कभी।
भूल गए शायद हम जीना, हारने लगे हैं सब तभी तभी।
वक्त कब मिटाता है हमे,हर मोड पर केवल सजाता हमे।
वक्त की आंधियां भी ऐसी चले,गढ़ने हो वीर जैसे उसे।।
फिर क्यो टूटे तू हे प्रिये,देख वक्त पल पल तुझे ही रचे।
मूंद कर तू नैन, क्यो तंज कैसे,हीरे घिस घिस कर सजे।।
चल एक कदम उन शूलों पर भी तू,सीख प्यारी सीखे भी तू।
जो हारा कभी,तू केवल खुद से,जिंदगानी तो सदा ही रचे।।