एक अजनबी
एक अजनबी
एक अजनबी से सफर में एक अजनबी से मिलना
पर लगता है ऐसे जैसे जानता हूँ सारा इतना।
गुमसुम गुमसुम सी बैठी थी अकेली
उलझी हुई लगती थी वो एक पहेली।
होने लगी थी बातें कुछ इधर उधर की,
पूछा ही नहीं मैंने तुम खोई कहाँ हो इतना।
अब तो आंखों ही आंखों में बात होने लगी
धीरे धीरे से वो भी करीब आने लगी।
हम दोनों एक प्यारी सी मुस्कान में खो गए
वर्षो से थे बिछड़े अनजाने में मिल गए।
आंखों से लब्ज अब लब पे आ चुके थे
और वो अपनी आँखों से ही मेरे लफ़्ज़ों को चुरा रहे थे।
फिर वो बेधड़क सी अपनी बातों को बोलने लगी
कुछ थे पुराने राज जो वो अब खोलने लगी।
अपनी नर्म उंगलियों से अपनी जुल्फों को सुलझाती
इशारों ही इशारों में मुझे बहुत कुछ समझाती।
हम सभी अजनबी थे पर अब दोनों घुलमिल गए थे
कुछ सोए हुए थे ख्वाब धीरे धीरे वो भी जग रहे थे।