दर्द और संकल्प
दर्द और संकल्प
कहने को तो मैं शहीद हूँ
दर्द बहुत है लेकिन दिल में
मौका नहीं मिला क्यों मुझ को
मिला था जैसा कारगिल में
सुनो सुनो मैं सबसे अपने
मन की कहने आया हूँ
आज नहीं तन बाकी मेरा
हवा मैं बन के आया हूँ
जान गँवाने का ग़म मुझ को
यूँ तो किंचित मात्र नहीं
लेकिन दुख बस इतना है
क्या लड़ने का मैं पात्र नहीं
बिन हथियार उठाए मरने
का दुख क्या है दिखलाना
मेरे मन की व्यथा है क्या ये
देश में सबको बतलाना
कायर अगर सामने आता
जौहर मैं भी दिखलाता
हाल बनाना था वो मैंने
फिर हो ना पाता पुलवामा
लेकिन यह संकल्प है मेरा
स्वप्न अधूरा नहीं रहेगा
जड़ें छोड़ जाऊँगा ऐसी
कभी तिरंगा नहीं झुकेगा।
