दोहे
दोहे
जब से ओढ़ी है हँसी, गम का छोड़ लिबास
दुश्मन सारे हो गए, तब से बहुत उदास।
जबसे आया हे सखी, यौवन तन के द्वार
पुरजन परिजन हैं खड़े, बनकर पहरेदार।
नहीं जीतता वह कभी, जीवन का कुरुक्षेत्र
करके रखता बंद जो, कान और निज नेत्र।
श्रम की महिमा का करें, वर्णन सारे वे
गंगाजल से भी अधिक, पावन होता स्वेद।
आओ कुछ ऐसा गढ़ें, हम अपना किरदार
जाए दुनिया छोड़ जब, याद करे संसार।
