दख़लंदाज़ी
दख़लंदाज़ी
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दख़लंदाज़ी कर जाती है जब हदें पार
तब रह नहीं जाता ख़ुद पर इख़्तियार
किसने दिया किसी को यह अधिकार
कि कर दे मेरे वजूद को यूं तार तार
रहे न मेरी ही सोच पर हक़ मेरा
हर ख़याल का दायरा औरों ने घेरा
मेरी इच्छाशक्ति पर जमा कर डेरा
बैठी यह दुनिया, कुछ भी नहीं मेरा
अजब ज़िंदगी , अजब इसके तोल मोल
गठरी अजब,उस में तोहफ़े ढेरों अनमोल
मगर मैं ख़ुद कब पाई वह गठरी खोल
औरों ने मेरे नाम शुरू कर दिया तोल मोल
मैंने चाहा मैं ख़ुद करूं अपनी ज़िंदगी से सौदा
ख़ुद परखूं , ख़ुद बनाऊं अपना छोटा सा घरौंदा
मगर सब ने सुनाया, समझाया,धमकाया रौंदा
रिश्तों का करवाया हर कदम पर मुझसे सौदा
मन मसोस कर रह गई, यह कैसा है मायाजाल
मैं ही मकड़ी, मैं ही जाल- कुछ मेरा कमाल
कुछ ज़िंदगी की दख़लंदाज़ियों का कमाल
स्पंदन है जब तक , है तब तक यह मायाजाल
कहा ज़िंदगी ने, माना दख़लंदाज़ी करती बेजार
मगर हो न यूं मायूस -इस दख़लंदाज़ी में भी प्यार
समझने की है देर, न कर ज़िंदगी का तिरस्कार
दख़लंदाज़ी वहीं, जहां प्यार बेहिसाब,बेशुमार ।
है बात पते की सोच ज़रा, संतुलन बनाए रखना
है उसी में इस जीवन का सार
साथ का न कर तिरस्कार, उसका भी मान है करना!