धरती, माँ क्यों कहलाती है ….
धरती, माँ क्यों कहलाती है ….
पवन के चाल में हज़ार नखरे हैं
इधर की बातें उधर पहुंचाती है
कभी परवाज़ को बुलंदी पे ले जाती है
तो कभी तूफ़ान बनकर कहर बरपाती है
बारिश एक चालाक खिलाडी है
हर बरस वही बारिश घुमाती है
बरसने का मौसम आगे पीछे करके
धरती का सीना फाड़के मजे लेती है
चाँद के चहरे पे इतने दाग
फिरभी मोहब्बत का नगीना केहलाता है
इधर दाग का एक छींटा गिरा की नहीं
धोबन भी पैरों तले कुचलने लगती हैं
सूरज की तकदीर अच्छी है
जो धरती से बेशुमार प्यार पाता है
वार्ना विशाल कयनाथ में
हज़ारों सूरज भटकते ही तो रहते हैं
धरती, अब समझा, माँ क्यों केहलाती है
अनगिनत बीजों का गर्भ धारण करती है
जड़ें तो सीना छलनी करती हैं
फिर भी फूल और फल देते ही रेहती है।