धरती करे पुकार
धरती करे पुकार
अब धरती का हो रहा है क्रंदन
सुन क्यों नहीं रहा है जन जन
रो रो कर मैं कर रही पुकार
बंद करो मुझ पर अत्याचार
तुमने धरा को वृक्ष विहीन कर
मिटा दिया मेरा सुन्दर श्रंगार
तुम्हारे फैलाये ही वायु प्रदूषण से
वृक्ष आश्रित पक्षी करते हाहाकार
प्रातः कलरव से होता था अभिनन्दन
लुप्त हुआ अब भोरों का भी गुंजन
हरे भरे पेडों से ढकता था मेरा तन
सजने रंग – बिरंगे फूलों से व्याकुल है मन
तुमने मुझमे गहरे खनन करके
मुझ पर गगनचुम्बी भवन बनाए
नसों नाडी विदीर्ण करके
मुझ में गहरे घाव लगाए
तुम्हारे बोझ से बिगड़ गया संतुलन
टूट रहा अब और सहने को मेरा प्रण
अन्दर से मै कम्पित डगमग हिली हुई हूँ
परन्तु तुम्हारे पृथ्वी तत्त्व से मिली हुईं हूँ
अंतिम घड़ी पञ्च तत्व में मिलने को
जब जग होगा सूखी लकडियो से विहीन
उस दिन भी आ जाना मेरे आँचल में
मैं तुमको कर लूँगी अपने में लीन।