धर्म: एक परिभाषा
धर्म: एक परिभाषा
धर्म जैसे ज्ञान है,
धर्म स्वाभिमान है,
धर्म ही तो नीति है,
और धर्म ही कल्याण है,
धर्म तो एक ज्योति है,
धर्म आत्मशक्ति है,
धर्म मनुज के हृदय में,
बसने वाली भक्ति है,
धर्म ना मंदिर में है,
ना धर्म गीता सार है,
धर्म तो अंतर्मन में ,
बह रहे विचार हैं,
कर्म जो ना हारता हो,
कर्म जो ना मारता हो,
धर्म उसी को कहेंगे,
कर्म जो जग तारता हो,
धर्म सूर्य की तपिश है,
धर्म शीतल चांद है,
धर्म है गंगा की धारा,
धर्म उस पर बांध है,
धर्म की ना भाषा है,
ना धर्म कोई परिभाषा है,
जो आत्मा को निर्मल कर दे,
धर्म वो ही आशा है,
सिंह की गर्जना भी धर्म है,
मृग तृष्णा भी धर्म है,
हर कार्य का जो फल मिले,
वो संतुलन ही धर्म है,
जो समझ ले अस्तित्व अपना,
वो ही धर्मवान है,
जो बना दे रंक को भी राजा,
धर्म वो सम्मान है।
