Manu Sweta

Abstract

4.7  

Manu Sweta

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धरा

धरा

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न जाने धरा को

किसकी है नज़र लगी

न जाने कैसे अजीब

से बंधन में बंधी


हर तरफ हाहाकार है

तबाही ही तबाही है

हर ओर न जाने

कितनी लाशें है पड़ी


आज आदमी कोआदमी से

मिलने से डर लगता है

अपनो को देखकर भी

न जाने क्यों भागता है


आखिर ये उसकी अपनी मर्ज़ी है

ये उसी की खुदगर्जी है

प्रकृति का इतना दोहन जो किया

आज उसने हमें देखो


कहाँ लाकर खड़ा कर दिया

आज हर तरफ मौत का मंजर है

ये खुद मानव का बनाया खंज़र है

अब न जाने कब इससे मुक्ति होगी


कब न जाने इसकी तृप्ति होगी

आओ मिलकर हम कदम बढ़ाए

अपनी धरा को स्वच्छ बनाये।


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