कुछ इंच
कुछ इंच
जब खोए हुए थे
तुम मेरे पंखुड़ी-से होठों के
सौन्दर्यपान के ख़्वाब में
तुम भूल गए देखना
कुछ इंच ऊपर-
मेरी आँखों में
जिनमें तुम्हारे प्रति घृणा तैर रही थी....
जब नाप रहे थे तुम
अपनी निगाहों से
मेरे वक्षो की ऊंचाई
तुम भूल गए देखना
कुछ इंच ऊपर
मेरे चेहरे को
जिस पर तुम्हारे प्रति क्रोध का भाव था ..
जब नाप रहे थे तुम
अपनी उंगलियों से
मेरे नाभि का क्षेत्रफ़ल
तुम भूल गए झांकना
कुछ इंच ऊपर-
मेरे हृदय में
जिसमें तुम्हारे प्रति प्रतिशोध का भाव था...
जब पहुँच गए तुम
अपने पुरुषत्व के ज़रिए
मेरी योनि तक
तुम भूल गए देखना
कुछ इंच ऊपर
मेरी कोख को
जिसमें पुरुष पैदा करने का- पछतावा था।
कभी गौर किया तुमने ?
मेरे भीतर के वो भाव
जो तुम्हारे अरमानों से
हमेशा कुछ इंच ऊपर रहते हैं
क्योंकि तुम्हारी हर सोच-अरमान
हमेशा नीचे-नीचे
बस कुछ इंच नीचे जाकर
बस वहीं नीचे अटक जाती है।
