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shikha rani

Abstract

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shikha rani

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बेजान हवा सी

बेजान हवा सी

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निकल पड़ी हूँ, अनजान रास्ते पे खुद के तलाश में,

ना तो राहें अपनी है,ना ये ज माना अपना है,फिर भी दिल को चाह है मंज़िल पाने की ना जाने किस गलती की सज़ा पाई है,जिस के दिल पर कभी मेरा हक़ था,आज उसी दिल पर किसी और का हक़ है।

उसे तो पल-पल इतना चाहा मैंने, की आज भी उसके बिना भी उसी को चाहती हूँ, उसके गले लगकर बस एक पल को रोने की ख्वाइश है,पर आज उस पल ने भी ठुकरा दिया मुझे, चाहत की तमन्ना तो उसने खत्म करदी इस दिल से, पर इस दिल से मैं आज तक उसे न खत्म कर पाई, वो छोड़ के चला गया बहुत दूर मुझे।

पर आज भी वो तो मेरे पास हीं है,उसकी राहें मेरे सामने गुज़र जाती है, लेकिन  मैं आज भी उस खिड़कियों पर बैठी हूँ, मैं टूटी सी बेजान हवा के झोंके सी निकल पड़ी हूँ अनजान रास्ते पे खुद के तलाश में,   ना तो राहें अपनी है, ना ये जमाना अपना है, फिर भी दिल को चाह है मंज़िल पाने की, फिर भी दिल को चाह है मन्ज़िल पाने की।


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