देखा भी नहीं..
देखा भी नहीं..
तुझ को देखा भी नहीं
जाना पहचाना भी नहीं
फिर भी तू अपना सा बन गया
मेरी निगाहों ने तेरे अक्स को
कभी निहारा भी नहीं
फिर भी इन झुकी हुई पलकों ने
है तुझे अपने में समाया
इसे ख़ुदा की इनायत समझूँ
या अपनी ख़ुशनसीबी जब
पहली दफ़ा तेरी आवाज़
मेरे कानों में इस क़दर गुज़री
मानो उस कुछ पल की गुफ़्तगू में
दुनिया थम सी गई
हाँ, कह सकती हूं मैं
तब तक तुझ को देखा भी नहीं
पर जब हुआ सामना
तेरे अक्स से मेरे अक्स का
मानो दिल थम सा गया
साँसे रुक सी गई
होंठों ने जैसे बोलना ही बन्द
कर दिया हो
बस हल्की सी मुस्कुराहट
इस चेहरे पर थी
जब इन झुकी नजरों ने
तेरा दीदार किया
दिलों-दिमाग में थी बस
यही कश्मकश
कि जो लहरें मेरे भीतर
उफन रही थी
क्या तेरे तन-मन ने भी
किया उनका सामना
मेरे ख़यालात से शायद नहीं
पर थी मैं भी अनजान तेरी
कश्मकश से
होती भी क्यूँ नहीं
तूने कभी जिक्र ही नहीं किया
अब मैं यह नहीं कह सकती कि
तुझ को देखा भी नहीं...