ढलती उम्र
ढलती उम्र
उम्र ने तो ढलना है ,ढलने दें इसे!
दिल और दिमाग रहें न तरोताज़ा
ऐसी कोई ताकीद कहां!
शरीर ने तो रंग बदलने ही हैं देर सवेर
जोशीला हो मन,खुशियों की हो सरगम
एक समय था ऐसा , ज़िम्मेदारी थी कांधों पर
सारे घर परिवार की,नौकरी की,चूल्हेचौके की
ज़रूरतें अपनी , शौक अपने रख ताक पर
रखी नज़र घर बार पर, उसकी पक्की नींव पर
समर्पित थे दिन रात अपनी आंख के तारों को
बोझा था भारी ,ढोना था ज़रूरी , था कर्तव्य भी,
स्वेच्छा भी , अपना प्यार दुलार और दरकार भी
चाहते भी गर, बन मस्त मौला घूम आएं
देस परदेस , कर आएं सैर सपाटा ----- छोटी बड़ी
उन खुशियों को दोहराएं जो थीं अपना संसार कभी-
रख दिया परे उन्हें एक ओर--ज़्यादा सोचा भी नहीं
न था गिला कोई कि रह गए हम वंचित खुशियों से!
लेकिन अब वक्त आ गया है विश्लेषण का
क्यों बना लिया है हमने कैदी ख़ुद को यूं स्वेच्छा से
ज़िम्मेदारी तो निभाई जी जान से ,अब कैसी उलझन
आज़ाद हैं अपने बेटे बेटियां , कमा रहे , खा रहे,जी रहे
ज़िन्दगी अपनी ! स्नेह प्रेम की है भरमार!अब वह,वह हैं
और हम,हम!हर एक की पटरी जाएगी अपनी अपनी राह!
हमारा जीवन है फिर से एक बार , हमारे अपने हाथ
इसे सजाना छोटी छोटी खुशियों से है बस अपने ही हाथ
सुकून चांदी की थाली में लेकर न आएगा कोई
जीवन के इस कगार पर हैं आज, समेटें वह खुशियां
जो रख दीं थी ताक पर- उम्र के ढलने का क्या ग़म
बिना किसी अपराध भाव के,उठाएं सपनों की कड़ियां
जोड़ें फिर से , लाएं खुशहाली घर में फिर एक बार
जुड़े रहें स्नेह प्रेम की हर कड़ी से जीवन भर
मगर मायूसी को न दें जगह जाने अनजाने
हर दिन को हम उत्सव समझें
मेल मिलाप का सिलसिला चलता रहे हमेशा
हंसी खुशी क्यों न कटेगा जीवन का सफ़र!