दास्तान-ए-शाहरुख
दास्तान-ए-शाहरुख
दीवाना-सा इक अंदाज़ लिए निकला था,
अपनी किस्मत बनाने,
दिलवालों के शहर से सपनों की नगरी,
चला था कुछ कर दिखाने।
एक डर सा था मन में कहीं,
किसी चमतकार की आस भी थी,
शायद पागल से इस दिल को मेरे,
किसी जोश की तलाश सी थी।
मोहब्तों का दौर आया फिर,
दिलों पर बादशाहत का आगाज़ था वो,
हर मन्नत पूरी होने लगी,
मेरी अम्मी की दुआओं का अंजाम था वो।
कभी राज बना कभी राहुल,
कभी वीर तो कभी हैरी,
कभी फौजी बना कभी डॉन,
तो कभी पिया बन गया बैरी।
फिर क्या था दुनिया जहाँ को अपना कर लिया,
सच्चा मैंने हर सपना कर लिया,
होते अब्बा जान तो कहते आज,
"बिना कुछ किये कमाल कर दिया।"
फर्श से अर्श तक का सफर,
भले ही मुश्किल रहा,
पर हारकर हमेशा जीता,
तभी तो सबने बाज़ीगर कहा।
चलते चलते बस यही कहूँगा,
खुशियाँ बिखेरूँगा जब तक है जान,
मुझको पहचान लो, माए नेम इज़ खान।
