दादा और पोते का सवांद
दादा और पोते का सवांद


पोता :
आँगन कितना असीम हैं यहाँ,
बेला में भी कितनी उमँगाई है,
वो शहर में रत्ती भर ज़मीन है,
पर ज़िन्दगी वहाँ क्यूँ बिताई है ?
दादा :
बालक हो तुम अबोध से,
किन्तु ह्र्दय में तुम्हारे
यह बात कहाँ से आई है,
गांव में आत्मा बस्ती है,
किन्तु शहर जीवन की सच्चाई है।
पोता :
क्या आत्मा और जीवन मित्र नहीं,
क्यूँ इनमें कटुता आई है ?
दादा :
अल्पमत में हैं विचार मेरे,
तुम्हें एक और सत्य कैसे बतलाऊँ ?
जब कोई होगा नहीं मेरा यहाँ,
तो सिर्फ इन दीवारों संग
मैं कैसे जी पाऊं ?
पोता :
दादू मुखिया हो हमारे आप,
फिर क्यों ना उस वक़्त
आपने अपनी बात मनवाई,
बीजा जहां, वहीं रहें उसकी भुजाएं,
यही तो है उनके वज़ूद की सच्चाई।
दादा :
(मुस्कुराते हुए )
बीजा ज़मीन से जुडा है,
किन्तु भुजाओं को चाहिए
आसमान की ऊंचाई,
नभ और धरा के बीच की दूरी,
बनती है रिश्तों क बीच की सच्चाई।
पोता :
क्यों ना भुजाएं नभ नहीं
धरा की और झुक जायें,
बीजा है मंज़िल उसका
यह भुजा को बतलायें।
दादा :
(हर्ष से पोते को गले लगाते हुए
और मन ही मन पोते को बोलते हुए )
शब्द नहीं हैं मेरे पास,
इन बूढ़ी आँखों से ही तुम्हें सब कह जाऊं,
जो तुम हटा दो बीजा और भुजाओं की दूरी,
मैं बूढी-काया वहीं अमर हो जाऊं।